(Principal)
Dr. Abhay Nath Singh Read Moreप्राचार्य की लेखनी से
शिक्षा जीवनपर्यन्त चलने वाली मानव विकास की सतत प्रक्रिया है। व्यक्ति की जन्मजात शाक्तियों के स्वाभाविक एवं प्रगतिशील विकास में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा व्यक्ति को संवेदनशील बनाकर उसकी शारीरिक, मानसिक शक्तियों, योग्यताओं और रुचियों के विकास में सहायक सिद्ध होती है। मनुष्य का सर्वांगीण विकास शिक्षा द्वारा ही हो सकता है। शिक्षा व्यक्ति की अन्तः शक्तियों का स्वाभाविक विकास करते हुए उसका सामाजीकरण करती है जिससे व्यक्ति का विकास होता है।
वर्तमान शिक्षा मूलतः एकांगी होकर रह गयी है, जिसका उद्देश्य मानव मन को केवल ज्ञान प्रदान करना रह गया है। जीवन के अन्य लक्ष्यों से वर्तमान शिक्षा भटक चुकी है। आज की शिक्षा व्यक्तित्व के आत्मिक पक्ष पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं देती, जिसके कारण शिक्षा पूर्णतः भौतिकवादी हो चुकी है। शिक्षा मूल्यों से विहीन हो चुकी है। ऐसी स्थिति में शिक्षा को पुनर्संरचित करने की आवश्यकता है, जिससे वह मानव की आत्मा, शरीर एवं मन का विकास कर सके और मानव सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की स्थिति का अनुभव कर सके।
समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए मानवीय मूल्यों एवं उच्च आदर्शों के ह्रास को विशेष रूप से उत्तरदायी माना जाता है। नैतिक अधोपतन का प्रश्न उठते ही शिक्षा व्यवस्था पर उंगली उठना स्वाभाविक है। क्योंकि नवयुवकों में मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना हेतु शिक्षा को ही सशक्त माध्यम माना गया है। डॉ० राधा कृष्णन आयोग, मुदालियर आयोग, कोठारी आयोग जैसे विभिन्न आयोगों ने शिक्षा का लक्ष्य मानव को सुसंस्कृत बनाना माना है और इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि शिक्षा का लक्ष्य केवल शिक्षार्थी के मस्तिष्क में सूचनाओं का संग्रह नहीं है अपितु मस्तिष्क के साथ-साथ हृदय को पवित्र बनाना भी आवश्यक है ।
बुद्धिजीवी समुदाय समाज का नियंत्रक माना गया है। अत: उनका यह दायित्व है कि वे प्राचीन व आधुनिक रुढ़ियों, परम्पराओं, अन्धविश्वासों एवं कट्टरताओं के विरुद्ध संघर्ष करके नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना करें और समाज के प्रति अपने दायित्व को पूरा करें। जो परम्पराएं, व्यवस्थाएं और मान्यताएं मनुष्य की समझ और संवेदनशीलता का विकास करती है, उसे दूसरे मनुष्यों को अपने ही जैसा समझने की दृष्टि देती है तथा मनुष्य को उसकी स्वार्थकेन्द्रित क्षुद्रताओं से निकालकर उसे मानवीय सरोकारों का हिस्सा बनाती हैं। वही परम्परायें, व्यवस्थाएं व मान्यताएं नैतिक मानी जाती हैं। इस प्रकार के नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना का दायित्व उच्च शिक्षा संस्थानों पर है। किसी भी समाज की प्रगति उसकी सम्पत्ति से नहीं आंकी जाती, उसके नैतिक चरित्र से आंकी जाती है। आज उच्च शिक्षा से ऐसे ही समाज के निर्माण की उम्मीद की जा रही है।
उपर्युक्त विचार व नैतिक सोच का ही प्रतिफलन किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय रकसा, रतसर बलिया की स्थापना है। जिसका लक्ष्य गाँव के गरीब किसानों के बेटे व बेटियों को उच्च शिक्षा की पवित्र ज्योति से ज्योतिर्मय करने के साथ-साथ शिक्षा के माध्यम से उनमें सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय व नैतिक मूल्यों का संप्रेषण करना है। जिससे ये छात्र/छात्राएं समाज को एक नयी दिशा प्रदान कर राष्ट्र के विकास हेतु अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकें।
इत्यलम